Sunday, March 31, 2013


प्रखर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की फिर आहट

आखिरकार भारतीय जनता पार्टी को फिर से अपने पुराने उस प्रखर संास्कृतिक राष्ट्रवाद के रास्ते पर लौटना पड़ा है, जो उसने 1992 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा से शुरू किया था। ये कोई नई बात नहीं है। लेकिन भाजपा को इतनी देर से ये समझ में आया, ये चौंकानेवाली बात है। किसी भी पार्टी या व्यक्ति को ये समझ लेना चाहिए की जब वो अपने लाइन या मकसद से अलग राह चुनता है तो उसे उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। 

भाजपा प्रणीत वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार जब 2004 में केंद्र से चली गई तो उसका मंथन शायद पार्टी ने नहीं किया। 1992 के बाद जो हिंदुत्व की लहर चली थी, उसका ही परिणाम था कि केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली और देश की 26 पार्टियों की मिली जुली पहली सरकार का गठन हुआ था। लेकिन उसके बाद से लालकृष्ण आडवाली द्वारा जिन्ना का गुणगान करना, भाजपा का मुसलमानों के प्रति थोड़ा झुकाव होना, अपनी छवि को धर्मनिरपेक्ष बनाने के साथ-साथ हिंदुओं के साथ धोखा करना सबसे बड़ा घातक उसके लिए सिद्ध हुआ। दरअसल जब आपकी नींव हिंदू के मुद्दे पर टिकी है, आपका सबसे बड़ा समर्थक राष्ट्रवाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हो, जब हिंदू के मुद्दे पर आपको देश की जनता दिल्ली की कुर्सी दिला दे तो फिर आपका दायित्व यह था कि आप सत्ता का मोह छोड़ राम मंदिर को पूरा करने का काम करना था। लेकिन भाजपा ने पूरी तरह से उस हिंदुत्व या संास्कृतिक राष्ट्रवाद को किनारे कर दिया। 

पिछले कुछ समय से उमा भारती, गोविंदाचार्य, मदनलाल खुराना, विनय कटियार जैसे तमाम हिंदुत्व की छवि वाले नेताओं को किनारे कर दिया गया। साथ ही 2002 के गुजरात दंगे के बाद से नरेंद्र मोदी के विरोध में जो लहर देश में विरोधी पार्टियों द्वारा चलाई गई, उसका भाजपा ने कभी निर्णायक जवाब नहीं दिया। यही नहीं, पिछली बार जब उत्तर प्रदेश में उसके युवा नेता वरुण गांधी को हिंदुओं के पक्ष में बोलने पर मामला दर्ज कर लिया गया तो उत्तर प्रदेश के बुढ़े नेताओं ने वरुण गांधी को ऐसा दबाया कि उनका नाम ही गुम गया। उस समय अगर वरुण गांधी को भाजपा का समर्थन मिल जाता तो उसके पास नरेंद्र मोदी के बाद दूसरा ऐसा युवा नेता मिल जाता तो राहुल गांधी या अखिलेश यादव या फिर केंद्र में कांग्रेस के युवा नेताओं का एक तोड़ हो जाता। पर भाजपा ने इस पर कोई अमल नहीं किया। 

आखिरकार पिछले 9 सालों से सत्ता से बाहर रहने पर भाजपा ने थोड़ा तो समझा है कि उसने गलती कहां की। भाजपा ने रविवार को जो किया, वह उसे बहुत पहले करना था। यह अलग बात है कि उसका निशाना 2014 के आम चुनावों पर है, पर वह उससे पहले देश में एक लहर पैदा कर सकती थी। रविवार को पार्टी ने संसदीय बोर्ड में नरेंद्र मोदी को शामिल कर यह संकेत तो दे दिया कि आज नहीं तो कल, नरेंद्र मोदी दिल्ली की कुर्सी के दावेदार हैं। संसदीय बोर्ड सबसे अधिक शक्तिशाली बोर्ड किसी भी पार्टी का होता है। 

भाजपा ने इसके साथ ही जिस तरह से महासचिवों की सूची में वरुण गांधी, अमित शाह के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दो अन्य नेताओं मुरलीधर और धर्मेंद्र प्रधान को जगह दी है, उससे यह साफ हो गया है कि पार्टी ने फिर से कोर हिंदुत्व को जुटाना शुरू कर दिया है। दरअसल सच यही है कि आप अगर हिंदुत्व को छोड़ मुसलिम की ओर गए तो आपको दोनों का झटका लगेगा। सच यह है कि भारत का मुसलमान कभी भी भाजपा के पक्ष में मतदान नहीं करेगा और अगर भाजपा इसके लिए कोशिश करती है तो उसे हिंदुओं के मत से भी हाथ धोना पड़ेगा। 

देश के 75 फीसदी हिंदुओं की उपेक्षा कर 25 फीसदी मुसलमानों के बल पर कितनी पार्टियां राज करेंगी? उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, केंद्र की कांग्रेस पहले ही मुसलमानों के सम्मान में सर झुका चुकी हैं। आखिर देश में हिंदुओं की बात करना गलत तो नहीं है? फिर धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा केवल हिंदुओं के समर्थन में ही क्यों आती है? क्यों नहीं मुसलमानों का समर्थन करनेवालों को सांप्रदायिकता का तमगा दिया जाता है? 

देर से ही सही, भाजपा ने अपने कोर हिंदुत्व को एकजुट कर यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह अपनी नींव से पीछे नहीं हटी है। पर देखना यह होगा कि उसे इस नई सूची का कितना फायदा होता है? क्या वह इसे फिर से एक लहर के रूप में तब्दील कर पाएगी? या फिर वह राजग के तमाम दलों के दबाव के आगे झुककर अपने कोर हिंदुत्व को शांत कर देगी। वैसे राजग के एक दल जनता दल यू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो बिना नाम लिए पहले ही नरेंद्र मोदी पर निशाना साध दिया है। पर भाजपा को यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर वह बिना किसी दबाव में आकर नरेंद्र मोदी को पीएम इन वेटिंग की बजाय सीधे प्रधानमंत्री के रूप में घोषित कर दे, तो निश्चित तौर पर उसे लोकसभा के चुनाव में 200 से अधिक सीटें मिल सकती हैं। पर यह तभी होगा, जब वह मोदी को बहुत जल्द घोषित करे। क्योंकि चुनाव में अब बहुत ज्यादा समय नहीं है और मोदी के नाम के बाद उसकी लहर पैदा करने में पार्टी को समय लगेगा। 

जहां तक विरोध की बात है, तो सफलता उसी को हाथ लगती है, जो विरोधियों का या चुनौतियों का सामना करता है। समुद्र की लहर जिस दिशा में जाती है, उस दिशा में तो मुर्दे भी बह जाते हैं। कहा गया है- वो पथ क्या, पथिक कुशलता क्या, जिस पथ पर बिखरे शूल न हों, नाविक की धैर्य परीक्षा क्या, जब धाराएं प्रतिकूल न हों। पर समुद्र की लहरों के विपरीत बहना एक चुनौती है, और यही चुनौती इस समय भाजपा के समक्ष है।