Friday, February 13, 2009

क्यों न हिन्दी के लिए बने सत्याग्रह का प्रारूप ?


स्वतंत्र भारत में हिन्दी को उसका उचित स्थान नही मिल सका, वह स्थान भी नही जो संविधान निर्माताओ ने उसे प्रदान किया था। इसके मुख्य रूप से दोषी राजनीतिक हैं संविधान की हिदायत के अनुसार हिन्दी को कायदे से १९६५ में संघ सरकार की भाषा बन जानी चाहिए थी। लेकिन उस समय एक दो राज्यों में हिन्दी का विरोध देखकर तत्कालिन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने एतिहासिक आश्वासन दे डाला की हिन्दी किसी पर थोपी नही जायेगी। पर आज इसका उत्तर क्या है की अंग्रेज़ी थोपी जाए?
हिन्दी की हालत आज ऐसी है की इसे विश्वस्तरीय क्या राज्य स्तर के भी सम्मेलनों की जरूरत नही है। क्यों की हिन्दी के जो राष्ट्रिय मंच या संस्थान बनाये गए है उनमे कही दृष्टि अभाव, कही अकर्मण्यता तो कही लोलुपता दिखाई देती है। और अब जरूररत यह है की हिन्दी भाषी और हिन्दी प्रेमी इस दर्द के जख्म को आत्मा में महसूस करे, इस दर्द से ही कोई ऐसा कार्यक्रम बन सकती है जो हिन्दी को उसकी सही जगह दिला सकती है।
आज हिन्दी जिस स्थिति में है उसमे सत्याग्रह के आलावा कोई दूसरा रास्ता नही है। आज उदारीकरण की मुहीम का सबसे ज्यादा खतरा भी हिन्दी को ही है। शायद इससे डरकर ही पश्चिम बंगाल के लेखकों ने अपने कलकत्ता को कोलकाता करा लिया। हिन्दी को आधुनिक भाषा के रूप में उसे विकसित करना है। उसे प्रशासन की, न्यायपालिका की, उद्योग की, व्यापार की तथा तकनीक की भाषा बनाना है। हिन्दी को कभी भी किसी भी भाषा से न तो द्वेष था और न ही है। सच तो ये है की किसी भी भारतीय भाषा से अधिक उदार हिन्दी है। यही कारन है की जितना अनुवाद दूसरी भाषाओ से हिन्दी में होता है, उतना हिन्दी से दूसरी भाषा में नही.हिन्दी का ये प्रेम बना रहना चाहिए, पर अंग्रेज़ी के साथ वह प्रेम नही होना चाहिए। इसके लिए डॉक्टर से पर्ची हिन्दी में, कलेक्टर के कार्यालय से आदेश हिन्दी में जारी हो। बैंक से पासबुक हिन्दी में, चेकबुक हिन्दी में, सरकारी कार्यालय से सभी आदेश हिन्दी में जारी हो।

इसके लिए विध्वंस नही, बल्कि ख़ुद रचना कर साइनबोर्ड को हिन्दी में करेंगे , मारेंगे नही पर मानेंगे भी नही। सुव्यवस्थित कार्यक्रम के अनुसार जिले में एक कारवाई समिति , जिला सम्मेलनों के प्रस्तावों को कार्यरूप में परिणति करने का व्यावहारिक कार्यक्रम बनाये। भारतीय लोकतंत्र में नई जान हिन्दी सत्याग्रह से ही निकल सकता है। जब लोकतंत्र भारतीयभाषा में काम करेगा तो नई लोकतान्त्रिक उर्जा फूटना निश्चित है । सभी विकसित देशों मेंउसकी राजभाषा है। तुर्की , ब्रिटेन जैसे देशों ने भाषा बदलकर अपनी भाषा अपनाए। एक अनुमान के मुताबिक पूरे विश्व में ६० करोड़ लोग हिन्दी बोलते है। हिन्दी विश्व की तीसरे नम्बर की भाषा है।
सहने की सीमा होती है आख़िर हर इंसान में
हिन्दी ही बस हो सकती है भाषा हिंदुस्तान की।
भाषा होती एक राष्ट्र की भले विविध हो बोलिया
बन सकती है सब भाषा बस हिन्दी की हम्जोलिया।

मेरे लिए हिन्दी स्वराज्य का प्रश्न है । दुनिया वालो से कह दो की गाँधी हिन्दी के आलावा कुछ नही जानता- महात्मा गाँधी।
अंग्रेज़ी यहाँ दासी के रूप में रह सकती हैबहुरानी के रूप में नही- डॉक्टर कामिल बलके.

1 comment:

  1. मित्र,
    बहुत पवित्र विचार है। सत्याग्रह होना छाहिये। इसके लिये विचार-विमर्श होना चाहिये।

    लेकिन कुछ और बातें ध्यान रखनी होंगी। खतरा केवल हिन्दी को नहींहै। इससे बहुत अधिक खतरा देश की अन्य भाषाओं को भी है। इसलिये केवल हिन्दी के लिये सत्याग्रह की बात न की जाय। सभी भारतीय भाषाओं के हित के लिये सत्याग्रह की बात की जाय। अंग्रेजी को अघोषित रूप से दिये गये वर्चस्व को हटाने की बात हो। सभी भारतीय भाषाओं को उनके अधिकार क्षेत्र में समुचित अधिकार मुहैया कराने की बात की जाय। उदाहरण के लिये - ओड़िशा में कारय करने वाले कर्मचारियों के लिये ओड़िया की जानकारी की परीक्षा हो; ओड़िया में जनसामान्य से बातचीत करने की क्षमता की परीक्षा होनी चाहिये न कि अंग्रेजी की। जो अंग्रेजी माध्यम सपढ़े हों उनको देश में नौकरी पाने के लिये देशी भाषाओं के उच्च-स्तरीय पर्चे पास करने की अनिवार्यता हो।

    इसी तरह अखिल भारतीय स्तर की परीक्षाओं के लिये हिन्दी का ज्ञान आवश्यक हो; उसकी परीक्षा हो। इसके लिये हिन्दी क्षेत्रों के विद्यर्थियों के लिये अलग (कठिन) पर्चा हो, अन्य क्षेत्रों के लिये सरल पर्चा हो।

    याद रखिये - सभी भारतीय भाषाओं का भविष्य काला है। हम सबको मिलकर आन्दोलन चलाना है। यह हिन्दी-विरुद्ध-अंग्रेजी का आन्दोलन नहीं होना चाहिये। यह भारतीय_भाषा-विरुद्ध-अंग्रेजी का अन्दोलन होना चाहिये।

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